शहीदों के लहू पर क्रिकेट का उत्सव
शहीदों के लहू पर क्रिकेट का उत्सव।
प्रिय BCCI
कभी-कभी लगता है कि यह मुल्क अब भावनाओं से नहीं, केवल आयोजनों और विज्ञापन-स्पॉन्सरशिप से चल रहा है। अभी कुछ ही महीने बीते हैं जब ऑपरेशन सिंदूर की गूँज पूरे देश में थी। पहलगाम की घाटियों में खून बहा था, मासूम ज़िंदगियाँ चिथड़े-चिथड़े होकर बिखर गई थीं। उन रास्तों पर आज भी लहू की गंध होगी, उन पेड़ों की जड़ों में आज भी माताओं की चीखें धंसी होंगी। कितनी बहनों का सिंदूर उजड़ा, कितनी माँओं की गोद सुनी हुई, कितनी पत्नियों की आँखें पत्थर बन गईं।
और आज, उसी धरती पर हम क्रिकेट का उत्सव रच रहे हैं। जिस मुल्क से दर्द की गोलियाँ आती हैं, उसी मुल्क से क्रिकेट की गेंद और बल्ला मँगाकर हम ‘भाईचारे’ का खेल खेलते हैं। यह कैसी विडंबना है? यह कैसा देशप्रेम है, बीसीसीआई?
क्या आपकी बोर्ड-रूम की ठंडी दीवारों पर कभी शहीदों के चेहरों की परछाई पड़ी है? क्या स्पॉन्सर्स की चमकदार रोशनी में कभी उन विधवाओं की सिसकियाँ सुनाई देती हैं, जिनकी दुनिया पहलगाम में खामोश कर दी गई? आपके लिए यह सिर्फ मैच है, लेकिन उन घरों के लिए यह जले पर नमक है।
कहते हैं, खेल को राजनीति से अलग रखना चाहिए। लेकिन जब खून की नदी राजनीति नहीं, बल्कि ज़मीन की सच्चाई से बह रही हो, तब खेल का यह दिखावा किस काम का? क्या हमारे खिलाड़ी कल हाथ मिलाएँगे उन हाथों से जो सीमा के उस पार से आई गोलियों की सरपरस्ती करते हैं? क्या वे मुस्कराएँगे उन मुस्कानों के साथ, जिनके पीछे हमारी बहनों की विधवापन की कराह दबी है?
देश का दिल टूटा है, और आप टिकट बेच रहे हैं। देश की आँखें रो रही हैं, और आप ब्रॉडकास्टिंग राइट्स नीलाम कर रहे हैं। देश की आत्मा कराह रही है, और आप कह रहे हैं, "खेल भावना सबसे ऊपर है।" नहीं, बीसीसीआई, देशप्रेम ऐसे नहीं चलता।
देशप्रेम केवल स्टेडियम की गूंजती भीड़ और स्क्रीन पर झंडा लहराने का नाम नहीं है। देशप्रेम वह है जो पहलगाम की विधवाओं की आँखों में लिखा है। देशप्रेम वह है जो उन बच्चों की खामोशी में सुनाई देता है जिन्होंने अपने पिता को तिरंगे में लिपटे देखा है।
आप क्रिकेट को देवता मानते हैं। लेकिन याद रखिए, यह वही देश है जहाँ लोग ज़्यादा गहराई से याद करते हैं कि किसकी आँखें नम हुई थीं और किसके बल्ले ने चौका मारा था। यह वही देश है जहाँ शहीद की चिता ठंडी नहीं हुई होती और आप मैच का कैलेंडर जारी कर देते हैं।
क्या सचमुच यह वही भारत है, जहाँ सिंदूर उजड़ने के बाद भी खेल सबसे बड़ा उत्सव है? अगर हाँ, तो यह सिर्फ़ खेल की जीत नहीं, बल्कि हमारी संवेदना की हार है।
ख़त लिखने वाला लड़का।
चाय इश्क़ और राजनीति।
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